एकबार एक बडे परिवार में रंगमंच एवं सिनेसृष्टी के कलाकारों की अभिनय क्षमता पर चर्चा हो रही है, “पहले के जमाने में कलाकार अभिनय को, कलाके मंदिर में कला की पूजा समजतें थे. कलाकारों कला की साधना करते थे. निर्देशकों भी कलाकारों के
अच्छे गुरुओं बनकर कलाकारों की प्रतिभा को निखारतें थें. सभी मिलकर अनुशासन से अभिनय कला से पात्रों को जीवंत कर देते थे. अभिनय जीवित करने के लिए, यदि नायिकाओं को पानी भरी हुई गगरियाँ से दिखाया बताना हो, तो शुटिंग दौरान पानी से भरी गगरियाँ से ही, चलना पड़ता था.
निर्देशक गुरु कहते थे कि खाली गगरियाँ से चालमें फरक आ जाता है!!भोजन के दृश्यों में जीतनी बार दृश्य का रिहर्सल होता था, उतनी बार असलमें भोजन करना पड़ता था. फिल्म में करुण दृश्य में, रोने के लिए आंखों में ग्लिसरिल नहीं जाता था. निर्देशकों नायिकाओं को डाँटकर या तो कभी थप्पड मारकर रुलाते थे. नायकों भी अपना डुप्लीकेट स्टंट मेन को नहीं रखतें थे. अपनी अभिनय क्षमता के आधार पर फिल्मों में काम करते थे. ” एक ने अपने ज्ञान से सभी को यह वक्तव्य सुनाया. फिर दूसरे सदस्य ने बातचीत की बागदौर अपने हाथ में ले लिया. वो कहने लगे,” रंगभूमि में तो अभिनय करना और कठिन था. रंगभूमि में तो अभिनय करने के लिए, ‘एक्शन री प्ले’ या, ‘री_टेक’ नहीं होता था. मंच पर अभिनय में अगर कुछ गलतयाँ होतीं तो… तो फिर दर्शकों की ओर से, जूतें,
टमाटर, सडे हुए अंडो, छोटे छोटे कंकर आदि की बौछार होती थी. यह सब इसलिए मुमकिन था क्योंकि बहुत सालों पहले नाटकों खुले मैदानों में या तो फिर गलियों में मंचित होते थे
नाट्य मंदिरों, तो बाद में हुए. महिलाओं का रोल पुरुषों कर देते थे. ”
पूरी चर्चा सुनने के बाद मासूम गुड्डीयाँ ने प्रश्न किया,” अगर फिल्मों में या तो नाटकों में मर जाने का दृश्य रहा तो…???

भावना मयूर पुरोहित हैदराबाद